भाषा एवं साहित्य >> संत रज्जब संत रज्जबनन्दकिशोर पाण्डेय
|
7 पाठकों को प्रिय 155 पाठक हैं |
भक्ति-काल के महत्त्वपूर्ण मुस्लिम कवि संत रज्जब का सम्पूर्ण संत साहित्य...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रज्जब भक्ति आन्दोलन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। दुर्भाग्य से भक्ति
आन्दोलन के सन्दर्भ में हम जिन कवियों की चर्चा करते हैं उनमें रज्जब छूट
जाते हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में सर्वाधिक मुस्लिम कवि भक्तिकाल
में हुए। रज्जब, रहीम और रखखान के बाद के हैं। जायसी जैसे सूफी कवि के भी
बाद के। ये न रामभक्त कवि हैं। न कृष्णभक्त। ये राम-रहीम और केशव-करीम की
एकता के गायक हैं। निर्गुण संत हैं। दादूदयाल के प्रमुख शिष्यों में से
एक।
कबीर के बोध को जन-जन तक पहुँचाने में दादूपंथी संतों की बड़ी भूमिका है। संख्या की दृष्टि से दादू के जीवन में ही जितनी बड़ी संख्या में शिष्य-प्रशिष्य दादू के बने, सम्भवतः उतने शिष्य किसी अन्य संत के नहीं। दादूपंथी संतों में एक बहुत बड़ी संख्या पढ़े-लिखे संतों की है। जगजीवनदास जैसे शास्त्रार्थी, सुन्दरदास जैसे प्रकाण्ड शास्त्र पण्डित और साधु निश्चलदास जैसे दार्शनिक दादूपंथी ही थे। संत साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य दादूपंथियों ने किया। इन संतों ने अपने गुरु की वाणियों को संरक्षित तो किया ही, पूर्ववर्ती तमाम संतों की वाणियों का संरक्षण भी किया। ऐसे संतों में रज्जब का नाम महत्त्वपूर्ण है। रज्जब ने संग्रह, सम्पादन की नयी तकनीक विकसित की। सम्पूर्ण संत साहित्य को रागों और अंगों में विभाजित किया। विभिन्न अंगों में सम्बन्धित विषय की साखियाँ चुन-चुनकर रखी गयीं। यह बहुत बड़ा काम था। रज्जब ने यह काम तब किया जब अपने ही लिखे संरक्षण की बात बहुत मुश्किल थी। रज्जब के संकलन में एक, दो, दस नहीं; 137 कवि हैं। एक ओर इस संग्रह में कबीर, रैदास जैसे पूर्वी बोली के संत हैं तो दूसरी ओर दादू, स्वयं रज्जब, वषना, गरीबदास, षेमदास, पीपा जैसे राजस्थानी बोलियों के संत हैं। नानक, अंगद, अमरदास पंजाबी भाषा-भाषी हैं तो ज्ञानदेव और नामदेव जैसे मराठी मूल के कवि भी इस संग्रह में हैं। अवधी और ब्रजभाषा में लिखने वाले संतों की बहुत बड़ी संख्या इस संग्रह में है। संस्कृत के महान आचार्यों यथा शंकराचार्य, भर्तृहरि, व्यास और रामानन्द को भी इस संग्रह में स्थान मिला है। इस संग्रह के कवि विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों के हैं।
ग्रंथों के ग्रंथन की एक सर्वथा नूतन पद्धति ‘अंग’ को अंगीकृत कर रज्जब ने संकलन-सम्पादन के क्षेत्र में मौलिक कार्य किया है। यह पद्धति अध्याय, सर्ग, उच्छ्वास्, उल्लास, अंक, तरंग परिच्छेद, उद्योग, विमर्श से भिन्न तो है ही; समय, बोध, गोष्ठी, पल्लव और काण्ड से भी भिन्न है। सर्वथा पृथक् और नूतन। अंगों के साथ रागों का निबंधन इस ग्रंथन प्रकिया को और अधिक सूक्ष्म बनाता है।
कबीर के बोध को जन-जन तक पहुँचाने में दादूपंथी संतों की बड़ी भूमिका है। संख्या की दृष्टि से दादू के जीवन में ही जितनी बड़ी संख्या में शिष्य-प्रशिष्य दादू के बने, सम्भवतः उतने शिष्य किसी अन्य संत के नहीं। दादूपंथी संतों में एक बहुत बड़ी संख्या पढ़े-लिखे संतों की है। जगजीवनदास जैसे शास्त्रार्थी, सुन्दरदास जैसे प्रकाण्ड शास्त्र पण्डित और साधु निश्चलदास जैसे दार्शनिक दादूपंथी ही थे। संत साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य दादूपंथियों ने किया। इन संतों ने अपने गुरु की वाणियों को संरक्षित तो किया ही, पूर्ववर्ती तमाम संतों की वाणियों का संरक्षण भी किया। ऐसे संतों में रज्जब का नाम महत्त्वपूर्ण है। रज्जब ने संग्रह, सम्पादन की नयी तकनीक विकसित की। सम्पूर्ण संत साहित्य को रागों और अंगों में विभाजित किया। विभिन्न अंगों में सम्बन्धित विषय की साखियाँ चुन-चुनकर रखी गयीं। यह बहुत बड़ा काम था। रज्जब ने यह काम तब किया जब अपने ही लिखे संरक्षण की बात बहुत मुश्किल थी। रज्जब के संकलन में एक, दो, दस नहीं; 137 कवि हैं। एक ओर इस संग्रह में कबीर, रैदास जैसे पूर्वी बोली के संत हैं तो दूसरी ओर दादू, स्वयं रज्जब, वषना, गरीबदास, षेमदास, पीपा जैसे राजस्थानी बोलियों के संत हैं। नानक, अंगद, अमरदास पंजाबी भाषा-भाषी हैं तो ज्ञानदेव और नामदेव जैसे मराठी मूल के कवि भी इस संग्रह में हैं। अवधी और ब्रजभाषा में लिखने वाले संतों की बहुत बड़ी संख्या इस संग्रह में है। संस्कृत के महान आचार्यों यथा शंकराचार्य, भर्तृहरि, व्यास और रामानन्द को भी इस संग्रह में स्थान मिला है। इस संग्रह के कवि विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों के हैं।
ग्रंथों के ग्रंथन की एक सर्वथा नूतन पद्धति ‘अंग’ को अंगीकृत कर रज्जब ने संकलन-सम्पादन के क्षेत्र में मौलिक कार्य किया है। यह पद्धति अध्याय, सर्ग, उच्छ्वास्, उल्लास, अंक, तरंग परिच्छेद, उद्योग, विमर्श से भिन्न तो है ही; समय, बोध, गोष्ठी, पल्लव और काण्ड से भी भिन्न है। सर्वथा पृथक् और नूतन। अंगों के साथ रागों का निबंधन इस ग्रंथन प्रकिया को और अधिक सूक्ष्म बनाता है।
भक्ति-आन्दोलन और संत रज्जब
भक्ति-आन्दोलन के संदर्भ में हम जिस भक्ति की बात करते हैं, वह भागवत
भक्ति है। भागवत धर्म का प्रचार-प्रसाद भक्ति-आन्दोलन की पूर्व पीठिका है।
इस आन्दोलन के जो महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष है, वे इसी भक्ति के साथ जुड़े
हुए हैं। सामान्यजन को अपने में समेट लेने की इसमें अद्भुत क्षमता थी। यह
लोकोन्मुखी थी। इसकी भाषा जनभाषा थी। कालान्तर में यह भावना केवल
वैष्णव-भक्ति तक सीमित नहीं रही। इसके साथ शैव, शाक्त, बौद्ध तथा जैन भी
जुडे। इससे प्रभावित भी हुए। भक्ति-आन्दोलन तीन सौ वर्षों तक (चौदहवीं
शताब्दी के मध्य से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक) अपने चरम पर था। जिस
भक्ति ने उत्तर भारत में आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण किया उसकी शुरुआत दक्षिण
से हुई थी। आलवार दक्षिण भारत के अत्यन्त प्रसिद्ध वैण्णव संत हैं। इनकी
कुल संख्या बारह है। ये है–पोयगै आलवार (सरोयोगिन), भुतत्तु
आलवार (भूत योगिन), पेय् आलवार (महायोगिन), तिरुमलिशै आलवार (भक्तिसार),
नम्मालवार (शठकोप), मधुरकवि (मधुर कवि), कुलशेखर आलवार (कुलशेखर),
पेरियालवार (विष्णुचित्त), आण्डाल (गोदा), तोण्डर अडियोपोडि
(भक्ताङघ्रिरेणु), तिरुप्पाणालवार (योगिवाह), तिरुमंगै आलवार (परकाल)।
इनका समय छह सौ ईसवी से नौ सौ ई० है। ये सभी आलवार विष्णु के अनन्य भक्त
थे। आलवारों के विषय में यह प्रसिद्ध है जो ईश्वर के ध्यान में मग्न रहता
है और उसके मूलतत्त्व को पहचानता है, वही आलवार है। आलवार का अर्थ
‘मग्न’ है। जो ईश्वर-प्रेम और भक्ति के सागर में मग्न
है, वह आलवार है।
आलवारों को विष्णु के विभिन्न अंशों से उत्पन्न माना गया है। संत विष्णुचित्त गरुड़ के अंश, संत परकाल धनुष के अंश, संत कासार शंख (पाज्चजन्य) के अंश, संत भूत गदा के अंश, संत वेताल खड्ग के अंश तथा संत कुलशेखर कौस्तुभ रत्न के अंश थे।1 सभी आलवारों का संबंध तमिल प्रदेश से है। आलवारों में विभिन्न प्रकार की जातियाँ थीं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और उस समय शूद्र से भी निम्न मानी जाने वाली जातियों के लोग थे। इनकी रचनाओं का संग्रह ’दिव्य प्रबंधम्’ में हुआ है। इनकी संख्या 12 है। इनमें एक स्त्री संत आंडाल भी हैं। आलवार अनवरत ईश्वर की भक्ति और उसके प्रेम में निमग्न रहते थे। नारायण के रूप और गुण को लेकर अलग-अलग संतों की अनुभूतियाँ अलग-अलग और विचित्र थीं। ‘‘कभी भक्त के रूप में, कभी पिता दशरथ के रुप में, कभी कौशल्या यशोदा, देवकी आदि माताओं के रूप में, कभी नायिका के रुप में–वह भी संयोग दशा में और विरह दशा में। संत परकाल का एक विलक्षण अनुभव है जिसमें वे पराजित रावण के सैनिक होकर श्री रामचन्द्र से करुणा की प्रार्थना करते हैं।’’2
आलवारों की भक्ति-पद्धति सगुण भक्ति के अधिक समीप है। यदि हम आलवारों के प्रभाव की चर्चा करें तो हम हमें सूरदास और तुलसीदास की भक्ति में अधिक प्रतिफलित होती दिखायी पड़ती है। आलवारों ने संस्कृत की जगह जन भाषा को अपनाया और भक्ति का द्वार सबके लिए खोल दिया। यह भक्ति जनोन्मुख भक्ति थी। इनके दिव्यप्रबंध की मान्यता वेद के समकक्ष है। इनकी वाणियाँ विभिन्न अनुष्ठानों में वेदमंत्रों की तरह उच्चरित की जाती हैं। प्रबन्धम् के पद्य विवाहोत्सव एवं अन्य प्रसंगों में भी गाये जाते हैं। रामस्वरूर चतुर्वेदी ने इसी सांस्कृतिक एकता के साक्ष्य के रूप में देखा है, ‘‘दिव्य प्रबंध अपने पूरे विस्तार में भारतीय राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता का विलक्षण साक्ष्य है। भाषा साहित्य के अन्तर्गत भक्ति काव्य की अग्रणी भूमिका में उसकी व्यापक दृष्टि आश्चर्य चकित करने वाली है, और है उन अंग्रेज तता अंग्रेजनिष्ठ विचारकों के लिए करारा जवाब, जो मानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय एकता अंग्रेजी के शासन का फल है। संस्कृत साक्ष्यों की बात अलग यहाँ भाषा काव्य में लगभग पाँचवी-छठी शती से ही ये सम्बन्ध सूत्र वर्तमान है। परकाल के ही पहले प्रबन्ध ‘पेरिय तिरुमोलि’ के आरम्भिक सात दशक भक्ति के अखिल भारतीय परिवेश का वर्णन करते हैं।’’ भक्ति-आन्दोलन की पृष्ठभूमि के रूप में इनकी चर्चा इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इन संतों में ब्राह्मणों के साथ शद्र और एक स्त्री भी थी। डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी ने सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त के संदर्भ से लिखा है, ‘‘प्राचीनतम वैष्णवजन आलावार थे। प्रसिद्ध आलवारों में सात ब्राह्मण, एक क्षत्रिय, दो शूद्र और महिमा का इन प्राचीन वैष्णवों में होना महत्त्वपूर्ण है। यह इस तथ्य को प्रकट करता है कि भक्ति-आन्दोलन का प्रारंभ ही वर्ण-व्यवस्था और नारी-पुरुष के भेदभाव को तो़ड़नेवाला था। प्रसिद्ध आलवार नाम्म या शठकोप शूद्र थे। उनके शिष्य उन्हें विष्णु का अवतार मानते थे।’’3 आलवारों की चर्चा के क्रम में शठकोप, परकाल और आंदाल की चर्चा आवश्यक है। शठकोप के चार प्रबंध हैं। इन प्रबंधों को चारों वेदों का सार माना जाता है। ‘‘तिरुविरुत्तम, ऋग्वेदसार है जिसमें सौ गाथाएँ हैं। तिरुवाशिरियम् यजुर्वेदसार है और उसमें सात पद्य हैं। तीसरा प्रबंध पेरिय तिरुअन्तादि है जिसमें 87 पद्य हैं और वह अथर्ववेद सार है। तिरुवायमोलि ही चतुर्थ प्रबंध है जो सामवेद सार है। उसमें 1102 पद्य है। परमात्मा के स्वरूप, गुण, विग्रह विभूति सब इन प्रबंधों में वर्णित है।’’4 इनके प्रबंधों में आत्मोद्वार के साथ-साथ समस्त आत्माओं एवं समस्त लोकों के उद्धार की बात की गयी है। शरणागति का भाव अत्यन्त प्रबल है। नामस्मरण के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है–
आलवारों को विष्णु के विभिन्न अंशों से उत्पन्न माना गया है। संत विष्णुचित्त गरुड़ के अंश, संत परकाल धनुष के अंश, संत कासार शंख (पाज्चजन्य) के अंश, संत भूत गदा के अंश, संत वेताल खड्ग के अंश तथा संत कुलशेखर कौस्तुभ रत्न के अंश थे।1 सभी आलवारों का संबंध तमिल प्रदेश से है। आलवारों में विभिन्न प्रकार की जातियाँ थीं। इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और उस समय शूद्र से भी निम्न मानी जाने वाली जातियों के लोग थे। इनकी रचनाओं का संग्रह ’दिव्य प्रबंधम्’ में हुआ है। इनकी संख्या 12 है। इनमें एक स्त्री संत आंडाल भी हैं। आलवार अनवरत ईश्वर की भक्ति और उसके प्रेम में निमग्न रहते थे। नारायण के रूप और गुण को लेकर अलग-अलग संतों की अनुभूतियाँ अलग-अलग और विचित्र थीं। ‘‘कभी भक्त के रूप में, कभी पिता दशरथ के रुप में, कभी कौशल्या यशोदा, देवकी आदि माताओं के रूप में, कभी नायिका के रुप में–वह भी संयोग दशा में और विरह दशा में। संत परकाल का एक विलक्षण अनुभव है जिसमें वे पराजित रावण के सैनिक होकर श्री रामचन्द्र से करुणा की प्रार्थना करते हैं।’’2
आलवारों की भक्ति-पद्धति सगुण भक्ति के अधिक समीप है। यदि हम आलवारों के प्रभाव की चर्चा करें तो हम हमें सूरदास और तुलसीदास की भक्ति में अधिक प्रतिफलित होती दिखायी पड़ती है। आलवारों ने संस्कृत की जगह जन भाषा को अपनाया और भक्ति का द्वार सबके लिए खोल दिया। यह भक्ति जनोन्मुख भक्ति थी। इनके दिव्यप्रबंध की मान्यता वेद के समकक्ष है। इनकी वाणियाँ विभिन्न अनुष्ठानों में वेदमंत्रों की तरह उच्चरित की जाती हैं। प्रबन्धम् के पद्य विवाहोत्सव एवं अन्य प्रसंगों में भी गाये जाते हैं। रामस्वरूर चतुर्वेदी ने इसी सांस्कृतिक एकता के साक्ष्य के रूप में देखा है, ‘‘दिव्य प्रबंध अपने पूरे विस्तार में भारतीय राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता का विलक्षण साक्ष्य है। भाषा साहित्य के अन्तर्गत भक्ति काव्य की अग्रणी भूमिका में उसकी व्यापक दृष्टि आश्चर्य चकित करने वाली है, और है उन अंग्रेज तता अंग्रेजनिष्ठ विचारकों के लिए करारा जवाब, जो मानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय एकता अंग्रेजी के शासन का फल है। संस्कृत साक्ष्यों की बात अलग यहाँ भाषा काव्य में लगभग पाँचवी-छठी शती से ही ये सम्बन्ध सूत्र वर्तमान है। परकाल के ही पहले प्रबन्ध ‘पेरिय तिरुमोलि’ के आरम्भिक सात दशक भक्ति के अखिल भारतीय परिवेश का वर्णन करते हैं।’’ भक्ति-आन्दोलन की पृष्ठभूमि के रूप में इनकी चर्चा इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इन संतों में ब्राह्मणों के साथ शद्र और एक स्त्री भी थी। डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी ने सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त के संदर्भ से लिखा है, ‘‘प्राचीनतम वैष्णवजन आलावार थे। प्रसिद्ध आलवारों में सात ब्राह्मण, एक क्षत्रिय, दो शूद्र और महिमा का इन प्राचीन वैष्णवों में होना महत्त्वपूर्ण है। यह इस तथ्य को प्रकट करता है कि भक्ति-आन्दोलन का प्रारंभ ही वर्ण-व्यवस्था और नारी-पुरुष के भेदभाव को तो़ड़नेवाला था। प्रसिद्ध आलवार नाम्म या शठकोप शूद्र थे। उनके शिष्य उन्हें विष्णु का अवतार मानते थे।’’3 आलवारों की चर्चा के क्रम में शठकोप, परकाल और आंदाल की चर्चा आवश्यक है। शठकोप के चार प्रबंध हैं। इन प्रबंधों को चारों वेदों का सार माना जाता है। ‘‘तिरुविरुत्तम, ऋग्वेदसार है जिसमें सौ गाथाएँ हैं। तिरुवाशिरियम् यजुर्वेदसार है और उसमें सात पद्य हैं। तीसरा प्रबंध पेरिय तिरुअन्तादि है जिसमें 87 पद्य हैं और वह अथर्ववेद सार है। तिरुवायमोलि ही चतुर्थ प्रबंध है जो सामवेद सार है। उसमें 1102 पद्य है। परमात्मा के स्वरूप, गुण, विग्रह विभूति सब इन प्रबंधों में वर्णित है।’’4 इनके प्रबंधों में आत्मोद्वार के साथ-साथ समस्त आत्माओं एवं समस्त लोकों के उद्धार की बात की गयी है। शरणागति का भाव अत्यन्त प्रबल है। नामस्मरण के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है–
विने वल् इरुठ्ठ एन्नुम्
मुनैहव्ठ् वेरुँवि-प् पोम्
शुनै नल् मलर् इट्टु
निनैमिन् नेडियाने।।
मुनैहव्ठ् वेरुँवि-प् पोम्
शुनै नल् मलर् इट्टु
निनैमिन् नेडियाने।।
(सरोवर के उत्तम पुष्प समर्पित करके सर्वेश्वर का स्मरण करो। पाप और घोर
अंधकार (अर्थात् अज्ञान) रूप विरोधी त्रस्त होकर भाग जायेंगे।)5
संत शठकोप के प्रबंधों में काव्य का उत्कर्ष भी देखा जा सकता है।
संत परकाल भी चतुर्थ वर्ग के थे। कहते हैं इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने स्वयं इनकी भुजा पर शंख का अंकन किया था और मंत्र दिया था। इनके पिता चोल राजा के सामंत थे। इन्होंने धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। चोल नरेश ने इन्हें अपना सरदार बना लिया था। ये नाच-गान में भी दक्ष थे। इन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की थी। पंडित श्रीनिवास राघवन् ने लिखा है, ‘‘संत परकाल प्रेम-भक्ति से उन्मत्त होकर स्थान-स्थान पर घूमने लगे, वहाँ के मंदिरों में विराजमान भगवन्मूर्तियों का दर्शन किया और अपने अनुभव को गानरूप में स्थायी बना दिया। उत्तर भारत के श्री बदरी, सालग्राम, नैमिषारण्य, अयोध्या, मथुरा आदि क्षेत्रों से लेकर दक्षिण में बावाजी, श्रीरंग मथुरा गोष्ठीपुर रामसेत आदि स्थानों में जाकर दर्शन करके उनकी स्तुति की।’’ इनकी रचनाओं में दास्यभाव की भक्ति है। इन्होंने परमात्मा को पति और जीवात्मा को आत्मा मानकर भी स्तुतिपरक रचनाएँ लिखी हैं। इनकी रचनाओं में द्रविड़ साहित्य की विशिष्टताएँ परिलक्षित होती हैं। विण्णु के विभिन्न अवतारों की स्तुति भिन्न-भिन्न प्रकार से की गयी है। इसमें कवि की प्रतिभा की पराकाष्ठा दिखलायी पड़ती है। की संत परकाल रचनाएँ सगुण भक्ति की हैं। ये चतुर्थ वर्ण के थे लेकिन ब्राह्मण-विरोध का कोई स्वर इनकी रचनाओं में नहीं दिखायी पड़ता। एक शुद्ध भक्त का इनका हृदय है। भगवान् के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देने की ललक है। एक पद में कहते हैं–
संत शठकोप के प्रबंधों में काव्य का उत्कर्ष भी देखा जा सकता है।
संत परकाल भी चतुर्थ वर्ग के थे। कहते हैं इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने स्वयं इनकी भुजा पर शंख का अंकन किया था और मंत्र दिया था। इनके पिता चोल राजा के सामंत थे। इन्होंने धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। चोल नरेश ने इन्हें अपना सरदार बना लिया था। ये नाच-गान में भी दक्ष थे। इन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की थी। पंडित श्रीनिवास राघवन् ने लिखा है, ‘‘संत परकाल प्रेम-भक्ति से उन्मत्त होकर स्थान-स्थान पर घूमने लगे, वहाँ के मंदिरों में विराजमान भगवन्मूर्तियों का दर्शन किया और अपने अनुभव को गानरूप में स्थायी बना दिया। उत्तर भारत के श्री बदरी, सालग्राम, नैमिषारण्य, अयोध्या, मथुरा आदि क्षेत्रों से लेकर दक्षिण में बावाजी, श्रीरंग मथुरा गोष्ठीपुर रामसेत आदि स्थानों में जाकर दर्शन करके उनकी स्तुति की।’’ इनकी रचनाओं में दास्यभाव की भक्ति है। इन्होंने परमात्मा को पति और जीवात्मा को आत्मा मानकर भी स्तुतिपरक रचनाएँ लिखी हैं। इनकी रचनाओं में द्रविड़ साहित्य की विशिष्टताएँ परिलक्षित होती हैं। विण्णु के विभिन्न अवतारों की स्तुति भिन्न-भिन्न प्रकार से की गयी है। इसमें कवि की प्रतिभा की पराकाष्ठा दिखलायी पड़ती है। की संत परकाल रचनाएँ सगुण भक्ति की हैं। ये चतुर्थ वर्ण के थे लेकिन ब्राह्मण-विरोध का कोई स्वर इनकी रचनाओं में नहीं दिखायी पड़ता। एक शुद्ध भक्त का इनका हृदय है। भगवान् के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देने की ललक है। एक पद में कहते हैं–
पूवार् तिरु महठ्ठ पुलहिय मार्बा !
नावार् पुहठ्ठ वेदियर् मन्निय नाङगूर्
देवा ! तिरुवेठ्ठठ्ठ-क् कुठ्ठत्तु उरैवाने !
आवा ! अजियान् इवन् एनरु अरुठ्ठाये।
नावार् पुहठ्ठ वेदियर् मन्निय नाङगूर्
देवा ! तिरुवेठ्ठठ्ठ-क् कुठ्ठत्तु उरैवाने !
आवा ! अजियान् इवन् एनरु अरुठ्ठाये।
(कमल पर विराजमान श्री महालक्ष्मी से समालिंगित वक्षवाले ! (लोगों की )
जिह्वा में प्याप्त ख्याति से समन्वित वेदविद् ब्राह्यणों से आश्रित
नांगूर के देव ! तिरुवेठ्ठठ्ठ-क्-कुठ्ठम् में विराजमान प्रभु ! हाय! हाय !
(मेरा) यह दास (दुःखी है )’–यह जानकर कृपा करो।6
वेदों के समतुल्य संतों की रचनाओं को महत्व दिलवाने में परकाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अपनी रचनाओं में ये वेद और ब्राह्मण की चर्चा बार-बार करते हैं। प्रबंधम् के पाठ की परम्परा भी इन्होंने विकसित की। श्रीनिवास राघवन् ने लिखा है–‘‘क्षेत्राटन करके संत परकाल श्रीरंग आए और श्री रंगनाथ की आज्ञा से वहीं ठहरे। बड़े यत्न से भगवन्मन्दिर का पुनरुद्वार किया और भगवान् के उत्सवों का प्रबंध किया। कहते हैं कि वे ही पहले पहल श्री आदिनगर से संत श्री शठकोप की मूर्ति को सत्कार सहित श्रीरंग लिवा लाये और मार्गशीर्ष महीने में शुक्ल प्रथमा से अध्ययनोत्सव मनाया जिसमें संस्कृत वेदों के जैसे द्रविड़ वेद-संतों की गाथाओं का गान किया गया और संतों की रचनाओ की महिमा प्रकट की गयी।’’
आलवारों में आंडाल का नाम सर्वाधिक चर्चित है। आंडाल ने उस समय लिखा जब साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में महिलाएँ प्रायः अनुपस्थित थीं। आंडाल दिव्य भक्त थीं। इन्हें संत विष्णुचित्त ने अपनी फुलवारी में तुलसी के पौधे के पास से प्राप्त किया था। तमिल आचार्यों ने आंडाल (गोदा) की स्तुति भूमि देवी और लक्ष्मी का स्वरूप मानकर किया है। गोदा अपने पिता के साथ ही फूलों की माला बनाती थीं और भगवान् को अर्पित करतीं थीं। इस कार्य को वह अत्यन्त तन्मयता और भक्ति के साथ करती थीं। गोदा की भक्ति और तन्मयता उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। वह माला गूँथकर पहले स्वयं पहनतीं तत्पश्चात् मंदिर जाकर भगवान् को अर्पित करती थीं। वह सज-धज कर स्वयं को दर्पण में देखती थीं और अपने आप से प्रश्न करती थीं कि क्या मैं भगवान् के योग्य हूँ।
स्वयं को व्रज की गोपी मानकर गोदा कृष्ण की आराधना करने लगी। कृष्ण को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए वह तरह-तरह की आराधना और व्रत करने लगी। विष्णुचित्त ने गोदा की इस स्थिति को देखकर उसका विवाह श्रीरंग से कर दिया। इस प्रकार विष्णुचित्त रंगनाथ के श्वसुर हो गये। तमिल विद्वानों ने विष्णुचित्त को रंगनाथ का श्वसुर मानकर वंदना के श्लोक भी लिखे हैं।
हिन्दी के आचार्यों ने गोदा और मीरा की तुलना की है। दोनों श्रीकृष्ण को ब्याही गयी थीं। दोनों ने अपने परम आराध्य को नहीं छो़ड़ा। दक्षिण में गोदा के इस विवाह को समाज में मान्यता मिली। मीरा के विवाह को सामाजिक और धार्मिक दोनों ही मान्यताएँ नहीं मिलीं। मीरा का विवाह फिर से कर दिया गया। शायद इसका कारण दोनों क्षेत्रों की सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियाँ हैं। संतों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे संतों की है जो कहीं न कहीं किसी न किसी को बचपन में असहाय, तिरस्कृत पाये गये थे। इनके भीतर वैराग्य और विद्रोह की भावना अधिक तीव्र है। गोदा विष्णुचित्त की औरस कन्या नहीं थी। एक ब्राह्मण संत को फुलवारी में प्राप्त हुई थी। मीरा का समस्त कुल राजकुल थी। उसके अपने बंधन थे, सीमाएँ थीं।
गोदा की रचनाओं में श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव है। इनके पदों में कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन है। अपने आराध्य को प्राप्त करने की तड़प गोदा के तमाम पदों में दिखलायी पड़ती है। एक पद में कोकिल से कहती हैं–
वेदों के समतुल्य संतों की रचनाओं को महत्व दिलवाने में परकाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अपनी रचनाओं में ये वेद और ब्राह्मण की चर्चा बार-बार करते हैं। प्रबंधम् के पाठ की परम्परा भी इन्होंने विकसित की। श्रीनिवास राघवन् ने लिखा है–‘‘क्षेत्राटन करके संत परकाल श्रीरंग आए और श्री रंगनाथ की आज्ञा से वहीं ठहरे। बड़े यत्न से भगवन्मन्दिर का पुनरुद्वार किया और भगवान् के उत्सवों का प्रबंध किया। कहते हैं कि वे ही पहले पहल श्री आदिनगर से संत श्री शठकोप की मूर्ति को सत्कार सहित श्रीरंग लिवा लाये और मार्गशीर्ष महीने में शुक्ल प्रथमा से अध्ययनोत्सव मनाया जिसमें संस्कृत वेदों के जैसे द्रविड़ वेद-संतों की गाथाओं का गान किया गया और संतों की रचनाओ की महिमा प्रकट की गयी।’’
आलवारों में आंडाल का नाम सर्वाधिक चर्चित है। आंडाल ने उस समय लिखा जब साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में महिलाएँ प्रायः अनुपस्थित थीं। आंडाल दिव्य भक्त थीं। इन्हें संत विष्णुचित्त ने अपनी फुलवारी में तुलसी के पौधे के पास से प्राप्त किया था। तमिल आचार्यों ने आंडाल (गोदा) की स्तुति भूमि देवी और लक्ष्मी का स्वरूप मानकर किया है। गोदा अपने पिता के साथ ही फूलों की माला बनाती थीं और भगवान् को अर्पित करतीं थीं। इस कार्य को वह अत्यन्त तन्मयता और भक्ति के साथ करती थीं। गोदा की भक्ति और तन्मयता उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। वह माला गूँथकर पहले स्वयं पहनतीं तत्पश्चात् मंदिर जाकर भगवान् को अर्पित करती थीं। वह सज-धज कर स्वयं को दर्पण में देखती थीं और अपने आप से प्रश्न करती थीं कि क्या मैं भगवान् के योग्य हूँ।
स्वयं को व्रज की गोपी मानकर गोदा कृष्ण की आराधना करने लगी। कृष्ण को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए वह तरह-तरह की आराधना और व्रत करने लगी। विष्णुचित्त ने गोदा की इस स्थिति को देखकर उसका विवाह श्रीरंग से कर दिया। इस प्रकार विष्णुचित्त रंगनाथ के श्वसुर हो गये। तमिल विद्वानों ने विष्णुचित्त को रंगनाथ का श्वसुर मानकर वंदना के श्लोक भी लिखे हैं।
हिन्दी के आचार्यों ने गोदा और मीरा की तुलना की है। दोनों श्रीकृष्ण को ब्याही गयी थीं। दोनों ने अपने परम आराध्य को नहीं छो़ड़ा। दक्षिण में गोदा के इस विवाह को समाज में मान्यता मिली। मीरा के विवाह को सामाजिक और धार्मिक दोनों ही मान्यताएँ नहीं मिलीं। मीरा का विवाह फिर से कर दिया गया। शायद इसका कारण दोनों क्षेत्रों की सामाजिक-धार्मिक परिस्थितियाँ हैं। संतों में एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे संतों की है जो कहीं न कहीं किसी न किसी को बचपन में असहाय, तिरस्कृत पाये गये थे। इनके भीतर वैराग्य और विद्रोह की भावना अधिक तीव्र है। गोदा विष्णुचित्त की औरस कन्या नहीं थी। एक ब्राह्मण संत को फुलवारी में प्राप्त हुई थी। मीरा का समस्त कुल राजकुल थी। उसके अपने बंधन थे, सीमाएँ थीं।
गोदा की रचनाओं में श्रीकृष्ण के प्रति सम्पूर्ण समर्पण का भाव है। इनके पदों में कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन है। अपने आराध्य को प्राप्त करने की तड़प गोदा के तमाम पदों में दिखलायी पड़ती है। एक पद में कोकिल से कहती हैं–
एनपु उरुहि इन-वेल् नेंडुड्-कण्गव्ठ
इमै पॉरुन्दा पल नाठ्ठुम्
पोनपुरै मेनि-क् करुठ्ठ-क् कडि-उडै-प्
पुण्णियनै वर-क-कूवाय् !
इमै पॉरुन्दा पल नाठ्ठुम्
पोनपुरै मेनि-क् करुठ्ठ-क् कडि-उडै-प्
पुण्णियनै वर-क-कूवाय् !
(हड्डी पिघल जाती है, युगल बरछा-सम दीर्घ लोचन पलक नहीं मारते बहुत दिनों
से। दुःख सागर में फँस बैकुंठ कहलाने वाली एक नौका नहीं प्राप्त कर भटक
रही हूँ। प्रियजन के वियोग से होनेवाली पीड़ा तुम भी जानते हो। कोकिल ! इस
प्रकार कूक उठो, जिससे सुवर्ण-सम शरीर वाला गरुड़ध्वज पुण्य (प्रभु) आए।)7
महिला भक्त रचनाकारों में कर्णाटक की अक्क महादेवी का नाम उल्लेखनीय है। ये बारहवीं सदी की हैं। इन्हें कन्नड़ की पहली कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है। इनकी रचनाएँ आण्डाल से मिलती है। इन्होंने शिव को अपना पति मानकर मिलन की कल्पना की है। प्रिय से मिलन की आकुलता आण्डाल की तरह ही अक्ल महादेवी में भी प्रबल हैं। दोनों की भक्ति में इष्टदेव के प्रति समर्पण की भावना समान है। कश्मीर की ललद्यद भी शैव भक्तिन थीं। डॉ० रामविलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-2 में इन पर योग और उपनिषद् के प्रभाव को दर्शाया है–‘‘आण्डाल और महादेवी की अपेक्षा योग का प्रभाव कश्मीर की कवयित्री ललद्यद पर अधिक है। कश्मीर के विद्वान् अपना रचना कौशल संस्कृत में दिखाते थे। कुछ दिन बाद फारसी में दिखाने लगे। लोकसभा कश्मीरी निम्नजनों की भाषा मानी जाती थी। इस भाषा को साहित्य का शक्तिशाली माध्यम देने का श्रेय ललद्यद नाम की स्त्री को है। कर्णाटक में जैसे संत कवियों के वचन प्रसिद्ध हैं, वैसे ही सुदूर कश्मीर में ललद्यद तथा अन्य संतों के वाख अर्थात् वाक्य प्रसिद्ध हैं। लल में प्रेम तत्व है परन्तु वह हिम शिलाओं के नीचे, जलधारा के समान प्रवहमान है। वे हिम शिलाएँ दार्शनिक यथार्थवाद की हैं जिन पर आसन जमाए ललद्यद संसार का सामना करती हैं। किसी भी भारतीय कवयित्री की तुलना में उनकी दार्शनिक चेतना प्रखर है और वह किसी भी पुरुष के दार्शनिक चिंतन का मुकाबला कर सकती हैं। योग और सांख्य में कितनी शक्ति है, ये दर्शन जीवन संघर्ष में मनुष्य की कितनी बड़ी सहायता कर सकते हैं यह ललद्यट के काव्य में देखा जा सकता है।’’
महिला भक्त रचनाकारों में कर्णाटक की अक्क महादेवी का नाम उल्लेखनीय है। ये बारहवीं सदी की हैं। इन्हें कन्नड़ की पहली कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है। इनकी रचनाएँ आण्डाल से मिलती है। इन्होंने शिव को अपना पति मानकर मिलन की कल्पना की है। प्रिय से मिलन की आकुलता आण्डाल की तरह ही अक्ल महादेवी में भी प्रबल हैं। दोनों की भक्ति में इष्टदेव के प्रति समर्पण की भावना समान है। कश्मीर की ललद्यद भी शैव भक्तिन थीं। डॉ० रामविलास शर्मा ने भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश-2 में इन पर योग और उपनिषद् के प्रभाव को दर्शाया है–‘‘आण्डाल और महादेवी की अपेक्षा योग का प्रभाव कश्मीर की कवयित्री ललद्यद पर अधिक है। कश्मीर के विद्वान् अपना रचना कौशल संस्कृत में दिखाते थे। कुछ दिन बाद फारसी में दिखाने लगे। लोकसभा कश्मीरी निम्नजनों की भाषा मानी जाती थी। इस भाषा को साहित्य का शक्तिशाली माध्यम देने का श्रेय ललद्यद नाम की स्त्री को है। कर्णाटक में जैसे संत कवियों के वचन प्रसिद्ध हैं, वैसे ही सुदूर कश्मीर में ललद्यद तथा अन्य संतों के वाख अर्थात् वाक्य प्रसिद्ध हैं। लल में प्रेम तत्व है परन्तु वह हिम शिलाओं के नीचे, जलधारा के समान प्रवहमान है। वे हिम शिलाएँ दार्शनिक यथार्थवाद की हैं जिन पर आसन जमाए ललद्यद संसार का सामना करती हैं। किसी भी भारतीय कवयित्री की तुलना में उनकी दार्शनिक चेतना प्रखर है और वह किसी भी पुरुष के दार्शनिक चिंतन का मुकाबला कर सकती हैं। योग और सांख्य में कितनी शक्ति है, ये दर्शन जीवन संघर्ष में मनुष्य की कितनी बड़ी सहायता कर सकते हैं यह ललद्यट के काव्य में देखा जा सकता है।’’
|
लोगों की राय
No reviews for this book